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कांच नहीं मिटटी हूँ / मंजुला सक्सेना
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कांच नहीं मिटटी हूँ
टूटी हूँ फूटी हूँ
आँधियों में उड़ाती हूँ
गह्वरों में जमती हूँ
मिटती ही रहती हूँ
व्यर्थ नहीं जीती हूँ .
पैरों से रौंद लो ,
खेतों में जोत दो ,
भट्टियों में झोंक दो ,
नदियों में फ़ेंक दो .
फूल पर खिलाऊँगी
फसलें फिर उगाउंगी,
घर नए बसाउंगी.
ठोस बन के उभरूंगी
नए शहर बसाउंगी .
कांच नहीं मिटटी हूँ
हार नहीं पाउंगी
लेखन काल: १९८४