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काग़ज़ आ.. / सुरेन्द्र डी सोनी
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काग़ज़ आ
कि क़लम से झरती
लपटों से फूँकूँ
तुझमें प्राण –
फिर
ध्वज बनकर
तू लहरा –
मस्तक
भुजाएँ
जंघाएँ
चरण
सब अंग जला आ
उस वहशी के
जिसने
इस सुन्दर धरती को
बना दिया
कलह का कारख़ाना !