भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काग़ज़ों पर सब सही है / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
हर तरफ़ दिखता ग़लत पर
काग़ज़ों में सब सही है
ग्राफ़ में सब ग्रीनलाइन
निम्न पिसता औसतों में
दौर है विज्ञापनों का
है सियासत राहतों में
खो रहा बैलेंस लेकिन
शीट में बैलेंस है सब
चल रहा खाता-बही है
कब रजिस्टर में हुईं अंकित
व्यथाओं की कथाएँ
कौन आख़िर झेलता फिर
ये निरंकुश आपदाएँ
एकतरफ़ा बैठकों में चल
रहीं चर्चा बहुत सी
व्यर्थ की जो बतकही है
काग़ज़ों औ’ फाइलों ने
मूँद ली हैं आँख अपनी
क़लम गूँगी, प्रश्न गूँगे,
उत्तरों की मौन कथनी
जो दिखाता है निदेशक
देख लो वैसा सनीमा
देश में चलता यही है