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काठी में लोहे की छड़ है / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
मेरी जनम कुण्डली मुझसे
पूछ रही है क्या गड़बड़ है
काग़ज़ में मधुमास लिखा है
किन्तु ज़िन्दगी में पतझड़ है।
किस घातक ने तोड़ दिया है
मुझ से तेरा हर समझौता
इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर
छोड़ दिया मुझको इकलौता
लेकिन तू ने ! आग, राग में
दमका दी कितना औघड़ है।
लाँघ गया सारी दीवारें
तू नाचीज़ परिन्दा होकर
काग़ज़ पड़ा रहा धरती पर
खाता रहा हवा की ठोकर
जीवन से जीवनी निकाली
ऊपर कमल तले कीचड़ है।
क़ीमत के सारे पैमाने
तिनके जैसे तोड़ दिए हैं
नए मूल्य के लिए समूचे
अपने दुख-सुख छोड़ दिए हैं
आँखों में निर्मल ऊँचाई
काठी में लोहे की छड़ है।