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कादम्बरी / पृष्ठ 71 / दामोदर झा

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50.
ई की भेल! अतर्कित चन्द्रापीड़हि ओ लय आनल
अर्पित कयलहुँ अपन हृदय झट लघुताके नहि जानल।
बुझलक देखि महाश्वेता की? लाजे हाय मरै छी
सखिगणसँ सब लोक बुझत अनुतापे मनहिं जरै छी॥

51.
जे किछ भेल सम्हारब आबहुँ हुनका हम नहि देखब
ओ हमरा घर नहि आयल छथि सैह हृदयमे लेखब।
जैखन एतबा सोचल लगले आँखि नोर भरि अयलै
प्राण कहलकै जाइत छी हम मन मणिमन्दिर गेलै॥

52.
लगले उठि मदलेखा केर धय हाथ महल चढ़ि गेले
छत पर सँ मुख राजकुमारक देखथि बेसुधि भेले।
चन्द्रापीड़ो देखथि हिनका चारू आँखि लड़ै छल
मनसिज पाँचो बाा प्रहारथि सोझे हृदय गड़ै छल॥

53.
दृगसँ राजकुमारक मुख लावण्यक सुरा पिबै छलि
मदलेखाके निकट आनि किछ मन्दस्वरे गबै छलि।
तीन भुवनमे सुगम कथामे मनसिज देव सुनल छथि
तनिका सखि प्रत्यक्ष विलोकल चन्द्रापीड़ बनल छथि॥

54.
नहि किछु कहल महाश्वेता हमरा उद्धार करै लय
हिनका आनि अनक्षर कहलक परवश बना बरै लय।
बुझने हयत विकार हमर ओ स्वयं भुक्तभोगी अछि
जे कि भेल सम्हारब तैओ यद्यपि मन रोगी अछि॥