काम पर आया नहीं सूरज / ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
सर्द मौसम
काम पर आया नहीं सूरज,
और दफ़्तर पर जड़ा है
धुँध का ताला।
कोहरे की श्वेत चादर
ओढ़कर बैठे,
दूर तक फैले हुए पर्वत
सुबह से ही।
है कहाँ बैठा दुबककर
बज रहे दस,
शीत पहने तक रहे सब
राह सूरज की।
और सूरज सोचता
ले लूँ बची सीएल,
इस दिसम्बर कट रहा है
किस क़दर पाला।
बंद हैं इस्कूल
बच्चे हैं रजाई में,
है बिठाया जा रहा
घर में जबरदस्ती।
दफ्तरों में बाबुओं को
लग रही सर्दी,
चाय की दूकान पर
चलती मटरगश्ती।
और ऐसी ठंड में
गंगा नदी का तट,
नग्न बैठे साधु जपते
राम की माला।
शीत क्या बरसात क्या
गर्मी रहे कुछ भी,
हम सभी को काम पर
जाना जरूरी है।
हूटरों पर कट रही है
ज़िन्दगी अपनी,
और फिर पैसा कमाना
भी जरूरी है।
सूझता कुछ भी नहीं
इतना घना कुहरा,
काम पर जाना मगर
जाता नहीं टाला।