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कायनात के पार / रंजना भाटिया
Kavita Kosh से
शब्दों को बना के मिलन का सेतु
मैं अपने दिल के इस किनारे से
तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ
जहाँ कोई याद जैसे
होंठो पर सिसकती..
थिरकती ,मचलती
नदी-सी मुझे लगती है
और तब नयनों से जैसे
कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है
और फिर यूँ ही कुछ उभरे हुए
अखारों की जुबान
पूछती है एक सवाल
नहीं जानती किस से?
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
कौन हिसाब देगा मुझे?
बस जानती हूँ कि
एक ज़मीन ...एक आसमान
बसते हैं इस माटी के पुतले में भी
और मोहब्बत का जहान
एक जाल कभी बुनता है
कभी उलझता है
चाहता है सिर्फ़
यह उसी मोहब्बत का तकाजा
हमसे......
जिसका दीदार
सिर्फ़ इस कायनात के पार होता है ..
और यह सफर यूँ ही अधूरा रहता है....