भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काया अर म्हैं / संजय आचार्य वरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वांरै कैवण मुजब
अळगो-अलायदो है
म्हारो होवणो
म्हारी काया रै होवणै सूं।
ठीक है, मान लूं म्हैं
कै नीं हूं म्हैं
फगत ओ सरीर
नीं हूं सरीर
पण सरीर ही
क्यूं संभव करै
थारै खातर
म्हारै होवण नैं।
 
होवतो रैवूंला
काया रै बगैर कीं भी
पण म्हैं
ओ ‘म्हैं’ तो
पक्कायत नीं होय सकूंला
इण खोळियै रै नीं रैया।