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कारखाने से लौटने पर / कौशल किशोर

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झुलसा देने वाली सूरज की ताप से
कहीं ज्यादा गरम होती है मशीन की गरमी
और इसके बीच दिन काटने के बाद
कहां बचती है सुबह की ताजगी।

कितनी मनहूस है यह दिनचर्या
जिसे बिताकर लौटते हैं हम सभी
घर की चारपाई पर टूटे वृक्ष की तरह
धम्म से गिरने का इलाज कहाँ होता है...?

सड़क की पटरी छोड़ गली में उतरते ही
मेरा पांव कीचड़ में धंस जाता है
किसी मरे जानवर की गंध
नाक में समाती चली जाती है।

बच्चों की जिद्द
और घर के तरह तरह के उलाहने में
हमारी दिन भर की थकान
झुँझलाहट में बदलने लगती हैै

मैं महसूस करता हूं
खाली ड्रमों की तरह
ढनमना रही यह जिन्दगी
जिन्दा लाश बनी है
या डोल रही है
पेन्डुलम की तरह
हर सबेरा स्याह होता है
और शाम उदासी की एक और परत
दोपहर एक दल दल है
जहां डूब गया है हमारा सब कुछ
मसलन आजादी।

एक अफसोस
मेरे घर के नक्शे के संग संग
चेहरे पर भी उभरता है
पूरे रंग के साथ
इन दिनों यहां सब कुछ ढ़ल रहा है
दिन की तरह
ढि़बरी की धुंध भरी रोशनी में पिघल रहा है
मोह और मौन...मेरा सब कुछ।

कारखाने से लौटने पर
सबसे पहले बगावत कर रहे चेहरों से
गुजरना पड़ता है मुझे
झूठे वायदों व आश्वासनों के नीचे
उछलते हुए हाथों के बीच फैलने लगता है
भीतर ही भीतर ज्वालामुखी
मेरे घर की चार-दीवारियाँ
तब्दील होने लगती हैं काले पहाड़ में।

खाली बरतनों और डिब्बों की झन झन
पत्नी की खीस उतरती है
चिरौरी करते मासूम बच्चों की पीठ
उनके गालों पर

मैं हर ऐसे क्षण
अपने चारो तरफ फैली कंटीली झाडि़यों को
काट कर फंेक देने के लिए
कमरे से बाहर आ जाना चाहता हूँ

हाँ ! हाँ !... बाहर...
जहां तपिश है
हवा में आद्रता है
चिप चिपी गरमी है
उमस है
पर यहांँ मुट्ठी भर खुली हवा भी है
जो पूरे शहर में फैल जाने को युद्धरत है।