कारगिल-2 (दुश्मन के चेहरे में) / अरुण आदित्य
वह आदमी जो उस तरफ़ बंकर में से ज़रा-सी मुंडी निकाल
बाइनोकुलर में आँखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर
उसकी मूँछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूँछों जैसी हैं
खूब घनी काली और झबरीली
किंतु पिता जी की मूँछें तो अब काली नहीं
सन जैसे सफ़ेद हो गए हैं उनके बाल
और पोपले हो गए हैं गाल दाँतों के टूटने से
पर जब पिता जी सामने नहीं होते
और मैं उनके बारे में सोचता हूँ
तो काली घनी मूँछों के साथ
उनका अठारह-बीस साल पुराना चेहरा ही नज़र आता है
जब मैं उनकी छाती पर बैठकर
उनकी मूँछों से खेलता था
खेलता कम था, मूँछों को नोचता और उखाड़ता ज़्यादा था
जिसे देख माँ हँसती थी
और हँसते हुए कहती थी-
बहुत चल चुका तुम्हारी मूँछों का रौब-दाब
अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा
बरसों से नहीं सुनी माँ की वो हँसी
पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी
उसी दिन से माँ के होठों पर भी लग गए ताले
जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं
जैसे ही हुआ दसवीं पास
एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में
पहली तनख़्वाह से लेकर आज तक
हर माह भेजता रहा हूँ पैसा
पर घर नहीं हो सका पहले जैसा
मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए
जो-जो चीज़ें बिकी या रेहन रखी गई थीं
एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में
नहीं लौटी तो सिर्फ़ माँ की हँसी
और पिता जी के चेहरे का रौब
छोटे भाई के ओवरसियर बनने और
मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी
नहीं लौटा सके ये दोनों चीज़ें
मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूँ हर बार
आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-
तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए
तुम भी आ जाते तो मुलाक़ात हो जाती
बहू भी बहुत याद करती है
और अपनी माँ को तो तुम जानते ही हो
इस समय भी जब मैं लिख रहा हूँ यह पत्र
उसकी आँखों से हो रही है बरसात
बाइनोकुलर से आँख हटा
जेब से पत्र निकालता हूँ
इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख़
यानी पत्र में जो इस समय है
वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले
फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी माँ
सोचता हूँ तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य
माँ बबलू को खिला रही है
और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई
अपनी आँखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को
टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में
पिता जी संध्या कर रहे हैं
और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन
पत्नी के बारे में सोचता हूं
तो सिर्फ़ दो डबडबाई आँखें नज़र आती हैं
बार-बार सोचता हूँ कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि
और हर बार नज़र आती हैं दो डबडबाई आंखें
बहुत हो गई भावुकता
बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में
और बाइनोकुलर में आँखें गड़ाकर
देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर
बंकर से झाँक रहे चेहरे की मूँछें
बिलकुल पिताजी की मूँछों जैसी लग रही हैं
क्या उसे भी मेरे चेहरे में
दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?