भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कारपोरेट गेम / उत्पल डेका / नीरेन्द्र नाथ ठाकुरिया
Kavita Kosh से
खोपड़ी के अन्दर की दुनिया
बिना चश्मे के दिखती है
अजीब दुनिया
हमने जो खेल खेला
वह ख़त्म नहीं हुआ
बड़े अक्षरों में छपे विज्ञापनों के पीछे
पानी की चिपकी हुई बून्दें हैं
निवेश का जीवन
खून चूसना हमारा धर्म है
शोषकों और शासकों की
हड्डियों में पले बच्चे भूख से रोते हैं
मज़े के लिए दूसरों के मुँह से
निवाला छीनने का खेल दिलचस्प है
मूल असमिया भाषा से अनुवाद : नीरेन्द्र नाथ ठाकुरिया