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कारीगर कवि / प्रदीप मिश्र

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कारीगर कवि

(अग्रज कवि चंद्रकांत देवताले के लिए)


इतिहास की किताब की तरह
पुराना और ठोस चेहरा
चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें
इतनी बड़ी कि उनमें
घूमती हुई पृथ्वी साफ़ दिख़ाई दे

पसलियों के नीचे
स्नेह से लबालब हृदय
इतना निर्झर स्नेह कि
घर-पड़ोस के ईंट-पत्थर
पेड़-पौधे, बन्दर-कुते और गिलहरी
बना रहना चाहें उसके कऱीब

अख़बार की ख़बरों से चिंतित
उसका मन
कोलम्बस की तरह भटक रहा है
वह देखना और छूना चाहता है
ब्रह्माण्ड का चप्पा-चप्पा
 
उसकी खुरदुरी हथेलियों पर
नहीं बची है कोई रेखा
अँगुलियों में लोहे की छड़ जैसी
हड्डियाँ हैं
जब वह हथेलियों और अँगुलियों को
मुट्ठी की तरतीब़ में कर रहा होता है
उस समय नृशंस सत्ता के माथे पर
पसीने छूटने लगते हैं
किसी छरहरे पेड़ की तरह
वह रखता है
धरती पर पाँव

अपने तलुओं को
जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ
समय में प्रवेश करता है

किसी ठठेरे की तरह
सुधारता है समय के गढ्ढों को

वह एक कारीगर है
जिसके कानों पर
पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं

वह तराश रहा है
काट-जोड़ रहा है
काम कर रहा है
लिख रहा है कविताऐँ
निरन्तर।