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कालाहांडी / संतोष श्रीवास्तव

अभी अभी लौटी हूँ कालाहाँडी से चाहा था कुछ दिन रह लूँगी बतियाउँगी नीलगिरी के पत्तोँ से सुस्ताउँगी घने-घने जँगल के अँदर महकेगा हर फूल और मैं
उस खुशबू में खो जाउँगी
जाते ही देखा टूटे छप्पर वाले धरती पर पैबँद लगे इँसानो के घर
केवल भात परोस पत्तलोँ मेँ बैठे थे भूखे नँगे बेहालो के आदिम झुँड
मैने पूछा-कैसे खाओगे? इस रुखे सूखे चावल को? मूरत-सी दिखती बाला चहकी
खा लेगे हम
सान भात को भूख से अपनी

काँप गया अंतरंग
सूखी-सी सिसकी आह बन निकली
यही है क्या भारत का आज?
जिस भारत को गर्व से कहते है अपनी शान लौटी हूँ मैं भूख भात के सँग लौटी हूँ मैं इक पीडा के सँग