काळ / निर्मल कुमार शर्मा
देख रे इन्दर, थारी हठ सूँ काईं वे ग्यो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !
बाई रो मुकलावो रे ग्यो
भायो भी भणवा सूँ रे ग्यो
ऊडीकत थारी बाट
बाबो परधाम सिधर ग्यो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !
पणघट रे पीपळ री छाया
पनणिहारियाँ री मीठी बात्याँ
टाबरियाँ री भोली तूं मुस्कान ले गयो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !
चौपालाँ सुनसान पड़ी है
गळीयाँ भी सूनी-सूनी है
सुपणां रो सँसार आज मसाण रे गयो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !
हाळी भूखो पड्यो सो रह्यो
हळ खूँटियाँ पर टंग्यो रो रह्यो
प्यारो मोती बैल आख़िरी साँस ले रह्यो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !
राजा है तो निभा धरम भी
सुख निपजे कर इस्या करम भी
दुखियाराँ री सिरगराज क्यूँ हाय ले रह्यो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !
देख रे इन्दर, थारी हठ सूँ काईं वे ग्यो
म्हारो हरियो-भरियो गाँव, आज उजाड़ रे गयो !!