भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काळजयी रचणा / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
बैठो हूं
ले‘र
कलम‘र कागद,
अडीकूं
विचारां नै
पण बै
मनमौजी
कोनी आवै
भाज‘र
जिंया आवै
गाय ठाण पर,
कठै जाऊं अबै,
ढलती सिंझ्या
रूलिंयाडां रै लार ?
कदास आसी
मोड़ा बैगा
तो कोनी लावै
बां रै अरथणियों
सबद,
बिना मिल्यां
सगला संजोग
रचीजणी दौरी
काळजयी रचणा !