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काश कभी यूं भी हो / अर्चना अर्चन
Kavita Kosh से
तुम यूं ही आ जाओ झम् से
अचानक
किसी रोज
मेरे सामने / और मैं हतप्रभ सी।
तुम्हें यूं निहारती रहूँ
मानो खुद से पूछती हूँ
तुम सच हो या सपना है कोई।
काश कभी यूं भी हो
कि तुम
अपनी उंगलियों को
मेरी उलझी हुई लटों में फंसाकर
सुलझा दो
तुम्हारे और मेरे रिश्ते की
सारी उलझनें
काश कभी यूं भी हो
कि चहलकदमी करते हुए
खामोश हम दोनों
निकल जाएँ दूर
किसी अनजान दिशा की ओर
और तय कर लें
हमारे बीच के सारे फासले
काश कभी यूं भी हो
कि कोई 'काश' न हो जिदंगी में
वो सब जो चाहूँ जो सोचूं
सच हो जाए
काश कभी यूं भी तो हो।