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काश मैं जानता / बरीस पास्तेरनाक
Kavita Kosh से
काश मैं जानता ऐसा ही होता है
जब मैंने लिखना शुरू किया था
कि खून सनी पंक्तियाँ मार डालती हैं
गर्दनियाँ देकर।
सच्चाई के साथ मजाक करते हुए इस तरह
मैंने इनकार किया होता साफ-साफ।
आरंभ तो अभी दूर था
और पहला शौक इतना भीरूतापूर्ण।
पर बुढ़ापा होता है एक तरह का रोग
जो आडम्बरों से भरे अभिनय के बदले
अभिनेता से संवाद की नहीं
मृत्यु की माँग करता है गंभीरता से।
जब पंक्तियों को लिखवाती हैं कविताएँ
मंच पर भेज देती हैं गुलाम को,
और यहाँ समाप्त हो जाती है कला
और सांस लेती है मिट्टी और नियति।