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कितने महिलोचित ढंग से
चांदी दमक रही है
रजतपर्व हो जैसे
ऎसे झलक रही है
तेज़ाब से लड़ी वह
मिलावट से भिड़ी वह
चुपचाप की गई वो
कारीगरी चमक रही है
लोहे के हल की
आभा झमक रही है
गायक के स्वरों में
अग्नि भभक रही है
(रचनाकाल : जनवरी 1937 (?))
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कितने महिलोचित ढंग से
चांदी दमक रही है
रजतपर्व हो जैसे
ऎसे झलक रही है
तेज़ाब से लड़ी वह
मिलावट से भिड़ी वह
चुपचाप की गई वो
कारीगरी चमक रही है
लोहे के हल की
आभा झमक रही है
गायक के स्वरों में
अग्नि भभक रही है
(रचनाकाल : जनवरी 1937 (?))