भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितने वर्ष बीते / रेखा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हें याद है अम्मा
कितनी बार
दे चुकी हो तुम
चढ़ते सूरज को अर्घ्य?

कभी गिनी है तुमने
एकादशी-द्वादशी-त्रयोदशी
जब घर भर की तृप्ति से तृप्त
निराहार सोई हो तुम

कभी जाना है तुमने
आज कौन-सी बार
तुम्हारे दरवाज़े पंडित जी टाँग गए हैं
गये बरस का वर्षफल

द्वार पूजते
दिया माँजते-बाती आँजते
या बित्ते भर धरती पर
राजा-रानी की कथा आँकते
ठाकुर जी के जन्मोत्सव पर
पीताम्बर में फूल टाँकते
कितने वर्ष बीते
तुमने कहा था कभी__
बुढ़िया बैठी कात रही है
चरखा चंदा के घर
सच माना था मैने उसे
फिर भी पूछा था
कहाँ से पाती है
इतनी कपास
कहाँ जाती है वह लंबी डोर
जिसे बुना करती है बुढ़िया
आज सुबह जब
गठियाते हाथों से
सौंपी तूने देहरी पूजा की थाली
तो जाना
देहरी पूजा वह घटना है
जब हर औरत अपनी बारी से
बन जाती है
चरखे पर बैठी बुढिया
हर रोज़ जो खिलता है
कपास-सा-फूल
हमारे आँगन के पूरब में
उसे ही कात रही है पल-पल
और सृष्टि को टेर रही है
कोख़ के भीतर से

आज समझ पाई हूँ अम्मा
क्यों याद नहीं है तुमको
कब जन्मी थी तू

किसको याद है भला पूछो
कब जन्मी थी
चाँद के घर में बुढ़िया