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किनारे पास आने लगे हैं / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
हवाओ में सरसराता है
एक कांपता स्वर
और नदी के बहाव में
खलबली मच जाती है
किनारे सहम जाते हैं
नीड के पंछी
फड़फड़ाते है
अचानक नदी में लपटे
उठने लगती हैं
किनारे थरथराते हैं
भटकती हवा जैसे
चीत्कार कर रही है
वे नदी में
विसर्जित कर रहे हैं
सोलह बरस की
सती की अस्थियाँ
उसके साठ बरस के
पति की अस्थियो
के साथ
वह लोमहर्षक पल
पहले भी देखा था
किनारो ने
जब निर्दय साजिश से
कच्ची मिट्टी के घड़े के
संग डूबी थी सोहनी
महिवाल के इश्क में
नदी में अब चाँद
नही उतरता
सूरज नहीं डूबता
सितारे नहीं झिलमिलाते
नदी सिकुड़ने लगी है
किनारे पास आने लगे हैं
किनारो का मिलन
भयावह त्रासदी को
आमंत्रण है