किरच-किरच / आरती मिश्रा
यह सब कुछ काँटों की सेज में सोने जैसा था
फिर भी मैं सोई और
ऐसा लगा कि कई जन्मों तक सोती रही
इन दिनों और उन दिनों भी यही किया मैंने
ना कहना चाहकर भी कहा ‘हाँ’ और ‘हाँ’
मैंने ये किया
मैंने वो किया
इसलिए कि
सब चाहते रहे ‘यही होना चाहिए’
कुछ विचित्र लगा कि यह सब
भीड़ सा काम करते हुए भी मैं
अलग और विशिष्ट रेखांकित हुई
और वह महीन आवाज़ जो लगातार गूँजती रही
उसे अनसुना किया मैंने
नासमझ बनी रही
ठेलती और तोड़ती रही खुद को किरच किरच
ये काँच के टुकड़े थे
ऐसे टुकड़े जिनमें न तो प्रतिबिम्ब दिखता
ना ही आर-पार
इन टुकड़ों को समेटती
मेरी पाँचों उँगलियाँ लहूलुहान हुई हैं
और रेशे-रेशे बिखरा है मेरा अस्तित्व
इन प्रक्रियाओं से गुज़रते जाने
कि निषेध के पाले में खड़ी होने के बावजूद
कोई हुँकार न भर पाने के बाद
मैं दूर कहीं भागकर गुम होना चाहती हूँ
किसी गुफा के अँधेरे कोने में छिपकर
उजास के तिनकों को मुट्ठियों में समेटना चाहती हूँ
दौडक़र किसी पहाड़ पर चढ़ना और चीख़ना चाहती हूँ
घुस जाना चाहती हूँ उस बियावान में
जहाँ आवाज़ें हर प्रश्न के उत्तर ढूँढ़ लाती हैं।