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किरचें / सरोज परमार
Kavita Kosh से
सब भर गया है दोस्तों !
उसकी कब्र पर रिश्तों के
कैक्टस उगे हैं।
ज़िन्दगी का फूलदान तो कब का
टूट चुका
उसकी किरचो में उम्र की
खुशबू ढूँढ रही हूँ।
इन फीकी आँखों में मत झाँको
यह मौत के कर्ज़ से बोझिल हैं
शरबती होठों को मत छूना
इन्होंने दर्द की आँच सेंकी है
इस समाधिस्थ चेहरे के पीछे
आँसुओं की लकीरें हैं
कोई तो संगतराश आएगा
जो मेरे दर्द को तराशेगा
किसी वीनस के बुत की तरह।
इस दर्द का तर्जुमा कर
सहेजेगा मूँगों की तरह ।
कैसी बेखुदी हओ लोगों ।
अपने अक्स को धो पोंछ रही हूँ
अपने मन के सन्दर्भों को खोज
रही हूँ।