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किराए का कमरा / सैयद शहरोज़ क़मर

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किराए का सँकरा कमरा खुलता है
बिल्कुल आर-पार
दिखने लगती है
उलझन की बुनावट
दहकते मई में
हिमालय काकोई शिलालेख
पलस्तर छोड़ता है
अक्षर बदन को गोदते हैं
चादर सुकून की
आकार लेती है
फड़फड़ाते पन्ने क़लम के स्पर्श से
कविता की गोद में
चुपचाप बग़लगीर होते हैं
थके यात्री की तरह

पँखे की हवा माँ की
थपकी दे जाती है
रोज़ पड़ोस की लड़की
चाभी दे जाती है।
 
08.08.1997

शब्दार्थ
<references/>