किस लिये, किनके लिये / विमल राजस्थानी
यह तो परायी भीड़ है, अपना नहीं यह नीड़ है
दो-चार पल-छिन के लिए
उड़ता फिरूँ तिनके लिए
रे किसलिये, किनके लिये ?
जो सर्प-सा फुंकारते
अस्नेह नयन निहारते
जो कण्ठ से नीचे कभी-
कुछ भी ना मुझ पर वारते
मैं सौंपता जीवन फिरूँ
रे किसलिये, किनके लिये ?
बेमन उदासी को वरूँ
आहत अमल अन्तर करूँ
कुछ योग्य चरणों के सिवा
पगड़ी कहीं कैसे धरूँ
दूँ क्यों लुटा मैं स्वंय को
रे किसलिये, किनके लिये ?
दूँ पीर को प्रश्रय, विलख
आँसू बहाऊँ क्यों भला ?
कुछ कौडि़यों के मोल कैसे
बेच दूँ अपनी कला ?
पाताल का स्पर्श क्यों
रे किसलिये, किनके लिये ?
चुकता रहा जिनके लिये
मेरे नहीं वे हो सके
दे एक चुटकी नमक भी
कब घाव मेरे धो सके
मैं और अब तिल-तिल जलूँ
रे किसलिये, किनके लिये ?
जो हैं उपेक्षित, स्नेह मिल-
पाया न जिस-जिस को यहाँ
मैं क्यों न मेघों-सा बिखर
दूँ सींच उस-उस को यहाँ
मैं रस सहेजे ही मरूँ
रे किसलिये, किनके लिये ?