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किसान / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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भोरे से संध्या तक सबदिन रहलों घर से बाहर,
कभी खेत-खलिहान, कभी दौड़ैत रहलों हम आहर।
उगल भुङुकवा भैंस गाय के देही भोरे चारा,
कहियो नै मौसम से हमरा मिललै बड़ी सहारा।
सूखा कभी पड़े हे भारी, मिले न चारा पानी,
हर किसान के जीवन के विपदा हे अकथ कहानी।
कभी बाढ़ में दह-भस जाहे उपजल-सँवरल धान,
खेती करते रहलों सब दिन संकट में हे प्राण।
करजा से हे लदल कृषक, उपजल न खेत में प्याज,
करजे में सब बिकल जा रहल, घर में कहाँ अनाज।
पढ़त बुतरुआ कैसें देखलावी कैसें हम रोग,
राहे-राह भटक रहलों हें मिलल न सुख-संयोग।
बहुत खोज रहलों हें लड़का, बेटी हमर कुमार,
दिन में भी लग रहल कि सगरो पसरल तिलक-अन्हार।
कभी फसल झुलसे ओला से कभी खाय लिलगाय,
देख-देख सब विलख रहल हें हम्मर बूढ़ी माय।
फटल दिवार कि घर से निकले हे छरविन्हा, साँप,
विपत-बाढ़ के देख-देख के सब रहलों हें काँप।
जाड़ा में हम सब काँपो ही मिले न रुई रजाई,
मार रहल हें जान हमर कत्ते दिन से महँगाई।।
भ्रष्टाचार सगर फैलल हे तनल घूस के चादर,
पैसा हे परमेश्वर ओकरा बिना न कजहू आदर।
दुख में जीलों, दुखे पीलों दुखिया सगर किसान,
ई दुख से जे त्राण दिलावे ऊ बनतै भगवान।