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किसी सुबह / भावना मिश्र
Kavita Kosh से
किसी सुबह इतना उदास लगता है अपना चेहरा कि भय हो सकता है ख़ुद से
किसी सुबह अपनी ही आँखें झुक जाती हैं उनमें बैठे सवालों के तले
किसी सुबह पंछियों का चहकना, चाय से उठती भाप और एक निस्संग मन,
सब घुल जाते हैं एक मौन में
किसी सुबह नींद के भ्रम से मुक्त होती-सी खुलती हैं भारी पलकें
किसी सुबह मन का भारीपन झुका देता है शरीर को
किसी सुबह बिस्तर पर पड़े मिलते हैं सीले हुए ख्व़ाब
किसी सुबह रक्त के साथ पीड़ा भी दौड़ती है नसों में
किसी सुबह पाँव रुक जाते हैं अपने ही कमरे के द्वार पर
किसी सुबह हम नहीं कर पाते सामना कमरे में पड़े अपने बासी वजूद का
किसी सुबह कुछ नहीं बदलता
किसी सुबह बदले होते हैं सिर्फ़ हम