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किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले? / शैलेन्द्र सिंह दूहन

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छोड़ किनारे मजधारों से हाथ मिलाले,
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले

ये पर्वत वन नदियाँ सारे तेरे ही हैं,
ये बादल ये चाँद सितारे तेरे ही हैं।
त्याग निराशा की कातरता धूल व्यथा की
अवसादों के पागलपन को दूर हटाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

हैं सपनों की सरगम के सब गान अधूरे,
शेष सृजन के कितने ही अरमान अधूरे।
टेर उमंगों की पावन उत्ताल तरंगें
उल्लासों की पुलकन को तू कंठ लगाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

जीते जी ही मुर्दों की ज्यों है जीना क्या?
सदियों से लम्बा खालीपन रे! पीना क्या?
तज तू जागू ही सोने की बासी धुन को
उजयारों के होठों पे नव गीत सजाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

काली रातें कब जुगनू को टोक सकी हैं?
कब चट्टानें बहते दरिया रोक सकी हैं?
डूबे वैभव के कंधे चढ़ बात बना मत
ठोस धरा पे फोड़ फफोले पीर मिटाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

गिर उठने की हिम्मत चलना सिखला देगी,
पथ की ठोकर तुझ को मंजिल बतला देगी।
तम की धारा समय सुधा को निगल रही है
श्रमजल के हर मोती से तू दीप जलाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?