किस्सा एक जंगल का / मदन कश्यप
वह जो कहावत है
एक म्यान में दो तलवारें
और एक जंगल में दो शेर नहीं रह सकते
सो उस जंगल में भी दो शेर नहीं थे
एक ही शेर था और एक थी उसकी छाया
शेर सूरज उगने पर उठता और अपनी ही छाया
से लड़ने लगता. छाया थी कि उसके साथ जंगल में
दौड़ लगाती, नदी तक जाती, पानी पीती. वह शिकार
करता और आधा हिस्सा उड़ा लेती छाया.
शेर को बेहद गुस्सा आता. कभी-कभी तो
खाना छोड़कर वह लड़ना शुरू कर देता छाया से
और लड़ते-लड़ते थककर भूखे ही सो जाता
इस प्रकार शेर की गुर्राहट और दहाड़
दिनभर गूंजती रहती. फिर भी, शांति थी जंगल में
शेर छाया-युद्ध में रत रहता था और अन्य
सभी जानवर चैन की तुरही बजाते रहते थे
भय और आतंक नहीं था. बैल डकार सकता था
हिरण कुलांचे भर सकते थे, खरगोश दूब की
मुलायम फुनगिया कुतर सकता था, बंदर पेड़ों पर
ऊधम मचा सकते थे
परंतु, एक दिन दोपहर में ही घिर आए बादल
एकदम काली घनी घटाएं. ऐसी कि दिन में ही
अंधेरा छा गया और शेर की छाया गायब
तभी हंसा शेर कि अब तक जिससे वह
युद्धरत था, वह तो उसकी छाया थी
फिर तो जो गुर्राहटों और दहाड़ों से नहीं कांपा
उसकी हंसी से कांप उठा वह जंगल
बैल के पुट्ठों की चर्बी पिघल गई
खरगोश की आंखों की चमक लुप्त हो गई
बंदर पेड़ों से चिपक गए. चिडियां घोसलों में
लौटने से डरने लगी. मोर नाचना भूल गया
लंगूर की दुम में ताकत ही नहीं रही........