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की करे गेलै धानि बनिया दोकान / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

पत्नी बनिया की दुकान पर गुड़ खरीदने और पनहेरी के यहाँ पान खरीदने के लिए गई। इसी बीच उसकी विभिन्न रंगों से चित्रित तथा निर्मित बेनिया चोरी चली गई। उसने पति से शिकायत की कि उस बेनिया को ननद चुरा ले गई है। पत्नी ने पति से रात में साथ सोने के लिए कहा, लेकिन वह तैयार नहीं है; क्योंकि उसकी पत्नी ने उसकी बहन पर चोरी का अभियोग लगाया है। उसने कहा- ‘जहाँ भी मैं चार रुपये फेंक दूँगा, वहीं तुम्हारी तरह पत्नी मिल जायगी। परंतु अपनी सहोदरा बहन कहाँ पाऊँगा? पत्नी भी कम चूकने वाली है। वह भी कह देती है- ‘मैं भी जहाँ आँचल बिछा दूँगी, वहीं पुरुष मिल जायगा, लेकिन अपने सहोदर भाई को कहाँ पाऊँगी?’
इस गीत में भाई बहन का उत्कट प्रेम और पति-पत्नी का प्रणय-कलह वर्णित है। इसी आशय की एक जातककथा भी उपलब्ध होती है।

की करे<ref>क्या करने</ref> गेलै धानि बनिया दोकान, की करै पनहेरिया<ref>पान बेचने वाला</ref> के हटिया हे।
हरी रंग बेनिया सुरँगे रँग बेनिया, मोरे मोन<ref>मन में</ref> बसऽ<ref>बसता है</ref> हे॥1॥
गूर<ref>गुड़</ref> कीने<ref>खरीदने</ref> गेलौं परभु बनिया दोकनियाँ, पान कीने गेलौं पनहेरिया के हटिया हे।
हरी रँग बेनिया सुरँगे रँग बेनिया, मोरे मोन बसऽ हे॥2॥
लाली पलँगिया परभु रतुली<ref>लाल रंग की</ref> रजैया, सोइ लेहु परभु मोरे सेजरिया हे।
कैसे हम सोबै<ref>सोऊँगा</ref> हे धानी तोरो सेजरिया, हमरा बहिनी के लगौलऽ चोरिआ हे॥3॥
टका चारि फेंकबो तहाँ धानि पैबो, माइ बाप के जनमल बहिनी कहाँ पैबे हे।
अँचरा बिछैबै तहाँ परभु जी के पैबै, माइ बाप के जनमल भैया कहाँ पैबै हे।
हरी रँग बेनिया सुरँगे रँग बनिया, मोरे मोन बसऽ हे॥4॥

शब्दार्थ
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