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कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो / वसीम बरेलवी

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कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो
वो ए'तिबार दिलाए और ए'तिबार न हो

हवा ख़िलाफ़ हो मौजों पे इख़्तियार न हो
ये कैसी ज़िद है कि दरिया किसी से पार न हो

मैं गाँव लौट रहा हूँ बहुत दिनों के बाद
ख़ुदा करे कि उसे मेरा इंतिज़ार न हो

ज़रा सी बात पे घुट घुट के सुब्ह कर देना
मिरी तरह भी कोई मेरा ग़म-गुसार न हो

दुखी समाज में आँसू भरे ज़माने में
उसे ये कौन बताए कि अश्क-बार न हो

गुनाहगारों पे उँगली उठाए देते हो
'वसीम' आज कहीं तुम भी संगसार न हो।