कुछ तो सोच-विचार करो!
मानव जीवन मिला भाग्य से मत इसको बेकार करो।
छीज रही साँसों की पूंजी कुछ तो सोच-विचार करो।।
बीत गया बचपन तो सारा लाड-प्यार-मनुहारों में।
यौवन के आते ही मन फँस बैठा विषय-विकारों में।।
वृद्धावस्था में आकर रोगों ने तन को घेर लिया।
मंजिल कैसे मिल पाती, जब पथ से ही मुँह फेर लिया।।
सत्कर्मों की नाव बनाकर, भवसागर को पार करो।
छीज रही साँसों की पूंजी कुछ तो सोच-विचार करो।।
हर मानव है यहाँ अकेला, झूठा जग का नाता है।
साथ नहीं आता है कोई, और न कोई जाता है।।
सभी मुसाफ़िर चलते-फिरते, दुनिया रैन-बसेरा है।
चार दिनों की रात चांदनी, फिर तो घोर अंधेरा है।।
भूल-भुलैया में फँस कर तुम भूल न बारम्बार करो।
छीज रही साँसों की पूंजी कुछ तो सोच-विचार करो।।
रंग बिरंगे फूल देखकर, मन में अपने फूल गए।
इस उपवन का मालिक़ जो है, तुम उसको ही भूल गए।।
धन-दौलत की चकाचौंध में, मन को मस्त बना बैठे।
मूल्यवान पारस को तजकर पत्थर को अपना बैठे।।
बीत गई, जाने दो उसको, और न अब विस्तार करो।
छीज रही साँसों की पूंजी कुछ तो सोच-विचार करो।।
जगो नींद से फँसे रहो मत, ग़फ़लत में, नादानी में।
दुनिया में यूँ रहो, कमल रहता है जैसे पानी में।।
भूल न जाओ परमपिता को, और नहीं जग को त्यागो।
काम करो निष्काम भाव से, मत कर्त्तव्यों से भागो।।
दूर भगाकर दुष्टकर्मों को मानवता से प्यार करो।
छीज रही साँसों की पूंजी कुछ तो सोच-विचार करो।।