भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ बातें / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
एक कोयल कूंकती होगी सिर्फ अपने लिए
लेकिन उसकी आवाज सबको सुनाई देती है।
रास्तों में चलो तो
अपनी निगाहें पेड़ों पर कर लो
क्योंकि ये सारी धूल अपने मस्तक पर लगा लेते हैं।
पहचान बनाओ इतनी कि
वो हमेशा के लिए मौजूद रहे।
यूं ही कभी किसी भूले को याद कर लो
कि पक्षी उड़ते हुए आकाश से निकल गए।
अनगिनत हाथों से छुए हुए सिक्के
तुम्हारे हाथों में
फिर घृणा किसी से क्यों
कि रात घोलती है अमृत
जागो या सोये रहो सबको मिलेगा
और मैं तलाशता रहा अंतहीन भूमि
यह ही मेरी सबसे बड़ी आस थी
मनुष्य नहीं हैं वहां फिर भी
धरती का तिनका भी
कितना अपना लगता है यहां
प्रेम से मेरी ओर उडक़र आता हुआ जैसे
और यह प्रेम मेरा कितना है
और तुम तक भी इसकी आवाज जाती हुई।