कुछ मत कहना / राम सेंगर
मन मेरे, कुछ मत कहना ।
जीवन के इस बीहड़ में
जब तक रहना हो, रहना ।
मन मेरे, कुछ मत कहना ।
खूँटी पर टाँग लबादा गीले दुख का ।
फट जाना अर्थ नहीं रखता आमुख का ।
तेरी पुस्तक गीता है
मर-खपकर सब कुछ सहना ।
इतिहास बनेगा ,
पर, तू अभी अधूरा ।
अभिव्यक्त स्व का संघर्ष हुआ कब पूरा ।
लटकीं जो सिर्फ़ हवा में
उन दीवारों को ढहना ।
उपहास उपेक्षा
जो भी मिले, लिए जा ।
हर क्षण का तू सच्चा अनुवाद किए जा ।
जीने की रौ में तुझको
मत पूछ कि कितना दहना ।
मन मेरे , कुछ मत कहना ।
रचना काल -- 1976