कुछ मत कहो सजोनी किस्कू ! / निर्मला पुतुल
बस ! बस !! रहने दो !
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू !
मैं जानती हूँ सब
जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर
जब तुमने चलाया था हल
तब डोल उठा था
बस्ती के माँझी-थान में बैठे देवता का सिंहासन
गिर गई थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठे
मगजहीन ‘माँझी हाड़ाम’ की पगड़ी
पता है बस्ती की नाक बचाने ख़ातिर
तब बैल बनाकर हल में जोता था
ज़ालिमों ने तुम्हें
खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा
वे भूल गए
सन्थाल-विद्रोह के समय
जब छोड़ गए थे तुम पर सारा घर-बार
तुम्हीं ने किए थे तब हल जोतने से लेकर
फसल काटने तक के सारे कार्य-व्यापार
तब नहीं गिरी थी उनकी पगड़ी
धरती नहीं पलती थी तब
कटी नहीं थी किसी की नाक
आज धनुष छूते ही तुम्हारे
धरती पलट जाएगी
मच जाएगा प्रलय सजोनी किस्कू
मत छूना धनुष !
घर चुऽ रहा है तो चूने दो
छप्पर छाने मत चढ़ना
‘जातीय टोटम’ के बहाने
पहाड़पुर की ‘प्यारी हेम्ब्रम’ की तरह
तुम्हारी मदद पाने वाला भी भी करेगा तुमसे जानवराना बलात्कार
और नाक-कान काट धकिया निकाल फेंकेगा घर से बाहर
हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की सम्पत्ति पर अधिकार
ज़िक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो बहन
मिहिजाम के गोआकोला की
‘सुबोधिनी मारण्डी’ की तरह तुम भी
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार कर दण्डित की जाओगी
‘माँझी हाड़ाम’ ‘पराणिक’ ‘गुड़ित’ ठेकेदार, महाजन और
जान-गुरुओं के षड्यन्त्र का शिकार बन
इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सजोनी किस्कू ?
कहाँ लगा रही हो गुहार ?
यहाँ तो जाहेर और माँझीथान के देवता भी
बिक जाते हैं बोतल भर दारू में
और फिर उन्हें स्वीकार भी तो नहीं है
तुम्हारे हाथों का चढ़ावा
देखो कहीं कोई सुन न ले तुम्हारी फुसफुसाहट
पड़ न जाए कहीं किसी ‘पराणिक’ की दृष्टि
गूँज उठे न बस्ती में ‘गुड़ित’ का हाँका
भरी पंचायत में सरेआम
नचा न दी जाओ नंगी ‘पकलू मराण्डी’ की तरह
बस रहने दो
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू
सब जानती हूँ मैं ! सब जानती हूँ !! ।