भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ शफ़क़ डूबते सूरज की बचा ली जाए / अहमद शनास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ शफ़क़ डूबते सूरज की बचा ली जाए
रंग-ए-इम्काँ से कोई शक्ल बना ली जाए

हर्फ़ मोहमल सा कोई हाथ पे उस के रख दो
क़हत कैसा है कि हर साँस सवाली जाए

शहर-ए-मलबूस में क्यूँ इतना बरहना रहिए
कोई छत या कोई दीवार-ए-ख़याली जाए

साथ हो लेता है हर शाम वही सन्नाटा
घर को जाने की नई राह निकाली जाए

फेंक आँखों को किसी झील की गहराई में
बुत कोई सोच के आवार ख़याली जाए

तिश्ना-ए-जख़्म न रहने दे बदन को ‘अहमद’
ऐसी तल्वार सर-ए-शहर उछाली जाए