भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ स्वर्णिम लम्हें पाये हैं / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ स्वर्णिम लम्हें पाये हैं
उनके रंग में रंग आये हैं

कुछ ना पाया कहने वाले
ना शुक्रे ही कहलाये हैं

पंकज जैसे उर वाले हम
कीचड़ कमल खिला आये हैं

दर्द मिला जो मीठा-मीठा
उसको दवा बना लाये हैं

अश्कों का जल पी-पीकर भी
तश्नालब ही लौट आये हैं

दहक रहे अनुरागी मन ने
शीतल नग़मे ही गाये हैं

दुनिया से चोटें खा-खा कर
‘उर्मिल’ के लब मुस्काये हैं।