कुछ हो / अमरजीत कौंके
रात जब गहरा जाए
और मैं जागता होऊँ
तो मेरा दिल करता है
कि कोई बोले
रात के होठों पर
जंग लगा ताला कोई खोले
मेरा दिल चाहता है
कुछ हो
दूर किसी छत पर
बच्चे के रोने का शोर
चूड़ियों की छनछन
पायल की रुनझुन की आवाज
कहीं अर्धस्वप्नमयी अवस्था में
बुदबुदाए कोई
कोई आवाज़ हो
अचानक आकाश में
गुजर जाए कोई विमान
या सिर के ऊपर से
उड़ती निकल जाए कोई टिटहरी
पास की सड़क पर शोर करता
वाहन ही गुजरे कोई
इस स्याह ख़ामोशी में
कुछ सुनाई तो दे
माँ की ममता भरी आवाज़
बाप की कोई मीठी-सी झिड़की
तुम्हारा वह उम्र भर इंतज़ार करने का वादा
हवा में गूँज जाए फिर से
कुछ तो हो
चाँद ही कुछ पल पास आ बैठे
नजदीक आकर गिरे कोई टूटा हुआ तारा
वेश बदल कर घड़ी दो घड़ी के लिए
पास आ बैठे हवा
मैं इंतज़ार करता हूँ
कि कहीं कुछ हो
जो तोड़ दे रात की
ये अन्धी खामोशी
लेकिन कहीं कुछ नहीं होता
उसी तरह मुस्कराता रहता है चाँद
आकाश में लटका
पास से मटक कर गुज़र जाती है हवा
सोयी दीवारें खड़ी रहतीं
सिर झुकाए
और
बेचैन-सा मैं
बदलता रहता हूँ करवटें
इस अन्धी रात की ख़ामोशी को
तोड़ने के लिए।