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कुछ हो जाता है / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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बिखराओ ना काली अलकें
कुछ हो जाता है,
महके हुए नम अँधियारे में
दिल खो जाता है।
अल्हड़पन में जो गुलाल था
आँचल से बिखरा,
बनकर लजीली भोर तेरे
मुखड़े पर निखरा।
देख लुनाई बीता युग याद-मुझे आता है।
साँसों के वातास में कभी
भटका लेती हो,
अलसाई पलकों में मुझको
उलझा देती हो।
निर्दय काजर का सम्मोहन मन भरमाता है।
ली एक अँगड़ाई हज़ारों
अंकुर फूट पड़े,
यौवन की अधिऽली कली पर
भौंरे टूट पड़े।
अधरों के मधुमय चषक से मद ढर जाता है। ङ
(24-4-76: आकाशवाणी गौहाटी-12-10 79)
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