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कुण हो बो / अशोक परिहार 'उदय'
Kavita Kosh से
कुण हो बो
जिको लेयग्यो काढ'र
थांरो सो कीं
म्हारै भीतर ई भीतर
मच रैई है घरळ-मरळ
बा'रै फगत मून ई मून है
टूटग्यो लागै
सो कीं म्हारै भीतर
सोचूं, आ जूण सांवटीज ई नीं जावै
इण थाकेलै सूं
म्हूं चाल ई पडूं
हळवां-हळवां पांवडा मे'लतो
सोधण सारू बो कीं
जिको लेयग्यो कोई काढ'र
बण'र म्हारो हेताळू।