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कुण्डलिया से प्रीत-4 / बाबा बैद्यनाथ झा

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वैसे तो प्रभु सृष्टि ही, है रहस्यमय बात।
उनमें दो बस स्त्री-पुरुष, प्रमुख जातियाँ ज्ञात॥
प्रमुख जातियाँ ज्ञात, यही हैं सृष्टि चलाती।
ये चारों पुरुषार्थ, हमें हैं सहज दिलाती॥
उनके बिन संयोग, प्राप्त हो संतति कैसे।
आदिकाल से सृष्टि, चली है अबतक वैसे॥
 
मिलते हैं इस भूमि पर, सारे रूप अनूप।
सर्वश्रेष्ठ है स्त्री-पुरुष, का सुन्दरतम रूप॥
का सुन्दरतम रूप, जगत इनसे चलता है।
आकर्षण का भाव, मध्य इनके पलता है॥
पाते है सन्तान, पुष्प ज्यों वन में खिलते।
होता जीवन धन्य, परस्पर जब ये मिलते॥

वैसे तो जगते सदा, मन में भाव अनन्त।
पर वसुधैव कुटुम्बकम्, जो माने वह सन्त॥
जो माने वह सन्त, वही है असली मानव।
रखता है जो भेद, समझ लें है वह दानव॥
करते हैं व्यवहार, स्वजन से हमसब जैसे।
यह जग है परिवार, हमारा भी तो वैसे॥

करते जो माता-पिता, गर्भपात की बात।
गर्भस्थित उस भ्रूण को, होता है आघात॥
होता है आघात, घृणित हैं वे हत्यारे।
राक्षस उनको मान, गर्भ-शिशु को जो मारे॥
जो करते वह पाप, दण्ड भी हैं वे भरते।
सीधे जाते नर्क, कर्म जो ऐसा करते॥

सारी वैदिक रीतियाँ, कहलाती हैं धर्म।
पर उनमें से श्राद्ध है, बहुत श्रेष्ठ सत्कर्म॥
बहुत श्रेष्ठ सत्कर्म, मुक्ति आत्मा है पाती।
अथवा यह बिन श्राद्ध, भटकती ही रह जाती।
करना है अनिवार्य, नहीं हो कुछ लाचारी।
देख सनातन धर्म, चकित है दुनिया सारी॥

रहता है वह सूत्र जो, सूत्रधार के हाथ।
चलती हैं कठपुतलियाँ, फिर उसके ही साथ॥
फिर उसके ही साथ, जगत भी वैसे चलता।
पा प्रभु का संकेत, एक पत्ता भी हिलता।
सुख-दुख हैं प्रारब्ध, जिसे हर प्राणी सहता।
सचमुच प्राणी मात्र, भाग्य पर निर्भर रहता॥

नारी हूँ तो प्राप्त है, ममता का वरदान।
त्याग समर्पण भाव दे, प्रमुदित हैं भगवान॥
प्रमुदित हैं भगवान, कष्ट में जाती घिर भी।
करती हूँ कल्याण, परायी हूँ मैं फिर भी॥
वृद्धापन में बोझ, स्वजन का हूँ मैं भारी।
इसीलिए प्रभु आप, सृजित करते हैं नारी॥

मिलते हैं दुख-दर्द तो, मत हों आप उदास।
अशुभ नहीं बोलें कभी, प्रभु पर हो विश्वास॥
प्रभु पर हो विश्वास, वही दुख दूर करेंगे॥
जो भी भौतिक कष्ट, सभी सन्ताप हरेंगे॥
जो हैं उद्यमशील, नहीं वे किञ्चित् हिलते।
रोता है जब भक्त, स्वयं प्रभु आकर मिलते॥

जाता है नायक भला, क्यों ठुकरा कर प्यार।
फूल लिए जब नायिका, देती थी उपहार।
देती थी उपहार, प्यार को बिन पहचाने।
किया नहीं स्वीकार, प्रेम निष्ठुर क्या जाने॥
जग में सच्चा मित्र, भाग्य से कोई पाता।
यह अनुपम संयोग, छोड़कर क्यों वह जाता॥

करना है हमको सदा, मात्र श्रेष्ठ ही कर्म।
है अखण्ड यौवन नहीं, सभी जानते मर्म॥
सभी जानते मर्म, उम्र है पल-पल ढलती।
सबके मन में नित्य, कामनाएँ हैं पलती॥
हम अपने पुरुषार्थ, प्राप्त कर सोचें मरना।
कर लें वांछित कर्म, बुढ़ापे में क्या करना॥