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कुण्डलियाँ-2 / बाबा बैद्यनाथ झा

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रखते हैं जो सादगी, पर हों उच्च विचार।
होते वैसे लोग ही, धरती का शृंगार॥
धरती का शृंगार, सरलतम बनकर रहते।
पर दें जब वक्तव्य, दिव्य वाणी ही कहते॥
जगवन्दित बन संत, प्रेम का मेवा चखते।
जो भी हैं विद्वान, सादगी हरदम रखते॥

जिसको प्रिय है सादगी, कहे सुसंस्कृत बोल।
आडम्बर से दूर जो, वही व्यक्ति अनमोल॥
वही व्यक्ति अनमोल, श्रेष्ठतम करता चिन्तन।
बन जाता वह पूज्य, जगत करता अभिनन्दन॥
हर उपयुक्त सलाह, हेतु सब पूछे किसको?
होता समुचित ज्ञान, विज्ञ सब कहते जिसको॥

करता सेवा भाव से, माँ का वह उपचार।
जन्मदायिनी माँ अभी, पड़ी हुई बीमार॥
पड़ी हुई बीमार, भले है बालक निर्धन।
माँ ही है सर्वस्व, समर्पित करता तन-मन॥
बालक एक अबोध, नहीं सेवा से डरता।
माँ हो जाए ठीक, विनय भी प्रभु से करता॥

होती जो नारी कभी, ढीठ निडर वाचाल।
वही अकारण क्रोध में, बन जाती है काल॥
बन जाती है काल, मिले जो उसको डाँटे।
दे जब कोई टोक, उसी को झाड़ू झाँटे॥
होकर वह बेशर्म, अकेली घर में रोती।
रहते लोग सतर्क, जहाँ वह नारी होती॥

जिसमें सत्साहित्य का, होता है विस्तार।
उस जिज्ञासा मंच का, है हार्दिक आभार॥
है हार्दिक आभार, छंद यह नित्य सिखाता।
त्रुटियों का परिहार, सहित सन्मार्ग दिखाता॥
कर ले इससे होड़, कहो है साहस किसमें।
सभी प्रमुख विद्वान, छंद रचते हैं जिसमें?
रहता हो संशय अगर, मन हो जाए क्लान्त।

जिज्ञासा का मंच यह, कर ही देगा शान्त॥
कर ही देगा शान्त, पूछ कर हर्षित रहिए।
लिखिए प्रतिदिन छंद, ग़ज़ल भी सुंदर कहिए।
इसी मंच पर नित्य, ज्ञान का सागर बहता।
इस पर भेज प्रविष्टि, शान्त मन मेरा रहता।

देती शबरी राम को, खाने जूठे बेर।
राम तुरत खाने लगे, हुई नहीं कुछ देर॥
हुई नहीं कुछ देर, हुए तब प्रभु जी हर्षित।
इसीलिए आराध्य, राम हैं जग में चर्चित॥
पा प्रभु का सान्निध्य, अमर वर शबरी लेती।
चख-चख मीठे बेर, हाथ में प्रभु के देती॥

लेकर चलता पीठ पर, पत्नी है बीमार।
खुद पति भी है वृद्ध पर, नहीं मानता हार॥
नहीं मानता हार, चला है बाग घुमाने।
गाएगा वह गीत, दिखाकर दृश्य सुहाने॥
कहकर मीठी बात, शान्त्वना उसको देकर।
जाता है यह वृद्ध, नित्य पत्नी को लेकर॥

राधा से एकान्त में, कृष्ण करे मनुहार।
बेसुध राधा मुग्ध हो, लुटा रही है प्यार॥।
लुटा रही है प्यार, भिन्न इनको मत मानें।
दोनों ब्रह्म स्वरूप, सत्य यह हम सब जानें॥
लें जब इनका नाम, हटे तब ही हर बाधा।
होते कृष्ण प्रसन्न, बोलते हम जब राधा॥

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
टिकता है तो बस वही, जब हो मन से प्रीत॥
जब हो मन से प्रीत, नियंत्रित हो मन कैसे?
चंचल मन पर रोक, असंभव ही है वैसे॥
कर सकते यह कार्य, एक योगी ही बनके।
रहते हैं हम दास, सदा ही अपने मन के॥