भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुण्डलियाँ-5 / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारे पापों से मुझे, हे प्रभु कर दें मुक्त।
शरणागत है यह अधम, भक्ति भाव से युक्त॥
भक्ति भाव से युक्त, पाप से दूर रहूँगा।
जो भी देंगे दण्ड, खुशी से नित्य सहूँगा॥
जीता हूँ मैं आज, आपके मात्र सहारे।
सभी पुराने पाप, दूर कर दें अब सारे॥

होती हैं ये बच्चियाँ, इस जग का आधार।
इनके बल पर सृष्टि का, होता है विस्तार॥
होता है विस्तार, इन्हें हम खूब पढ़ाएँ।
चढ़े उच्च सोपान, उच्चतर और बढ़ाएँ।
लक्ष्मी होतीं रुष्ट, कहीं जब बच्ची रोती।
देवी का ही रूप, लिये हर बच्ची होती॥

करती छोटी बालिका, घर के सारे कार्य।
कभी अकारण बैठना, नहीं उसे स्वीकार्य॥
नहीं उसे स्वीकार्य, बनाती नित्य रसोई।
जो भी मिलता काम, रहे उसमें ही खोई॥
पढ़ने का अधिकार, माँगने से वह डरती।
मुख पर रख मुस्कान, कार्य वह घर के करती॥

कहना है यह आपको, कवि का क्या है धर्म?
सम्यक् वर्णन सृष्टि का, करना ही कवि-कर्म॥
करना ही कवि-कर्म, समाहित सुख-दुख रहते।
बढ़े आपसी प्रेम, सदा सच्चे कवि कहते॥
देखे जो भी दृश्य, सदा ही उसमें बहना।
घटनाओं पर छन्द, बनाकर जाने कहना॥

होता है कविश्रेष्ठ का, रचना करना कर्म।
लिखते वे निष्पक्ष रह, यही मात्र हो धर्म॥
यही मात्र हो धर्म, श्रेष्ठ होती हर रचना।
जहाँ दिखे दुर्भाव, चाहते उससे बचना॥
पा लेते अमरत्व, निधन से जग है रोता।
जिसको चाहे लोग, वही सच्चा कवि होता॥

रहती मन में मैल तो, चमक नहीं हो प्राप्त।
हृदय रहे निर्मल जहाँ, सुन्दरता तहँ व्याप्त॥
सुन्दरता तहँ व्याप्त, साधना जो भी करता।
पा लेता वह तेज, विघ्न भी उससे डरता॥
उसके मुख से नित्य, ज्ञान की गंगा बहती।
बन जाता गणमान्य, शारदा सम्मुख रहती॥

राष्ट्र वंदना भी करूँ, सदा इष्ट के संग।
सर्वश्रेष्ठ यह देश है, जिसका हूँ मैं अंग॥
जिसका हूँ मैं अंग, नमन हे मातु भारती।
विकसित हो यह देश, उतारूँ दिव्य आरती॥
प्रस्तुत कर निज प्राण, करूँ मैं नित्य अर्चना।
सर्वप्रथम कर्तव्य, करें हम राष्ट्र वंदना॥

चलती है सहयोग से, जीवन रूपी नाव।
एक सहायक व्यक्ति का, रहता खूब प्रभाव॥
रहता खूब प्रभाव, बड़प्पन सबसे पाता।
उसका पूरा क्षेत्र, कीर्ति की गाथा गाता॥
उपकारी गृह नित्य, खुशी से लक्ष्मी पलती।
पाकर ही सहयोग, सृष्टि यह प्रभु की चलती॥

राधा खेले कृष्ण से, होली का त्यौहार।
लगा-लगा कर रंग द्वय, बाँट रहे हैं प्यार॥
बाँट रहे हैं प्यार, रास का दृश्य बना है।
हर गोपी के साथ, कृष्ण का प्रेम सना है॥
उनको करके याद, मिटेगी भव की बाधा।
आ जाते हैं कृष्ण, भक्त जब बोले राधा॥

होली में मिलकर सभी, सखियाँ खेलें रंग।
लेकर हाथ गुलाल वे, मचा रहीं हुड़दंग॥
मचा रहीं हुड़दंग, गाल पर रंग रगड़तीं।
करें हास परिहास, लगे ज्यों खूब झगड़तीं॥
हुईं सभी उन्मत्त, भांग की खाकर गोली।
मल मलकर हर अंग, आज सब खेले होली॥

अच्छाई की जीत से, गयी बुराई हार।
रात होलिका जल गयी, हुआ दनुज संहार॥
हुआ दनुज संहार, सत्य का साथ निभाएँ।
देख प्रलोभन आप, झूठ सम्मुख मत जाएँ॥
हरदम होती जीत, जहाँ होती सच्चाई।
किसी हाल में आप, त्यागिए मत अच्छाई॥