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कुफ्र / भारत भूषण तिवारी / मार्टिन एस्पादा
Kavita Kosh से
बक ही दिया जाए कुफ्ऱ: कविता हमें बचा सकती हैं
उस तरह नहीं जैसे कोई मछुआरा डूबते हुए तैराक को खींच लेता है
अपनी कश्ती में, उस तरह नहीं जैसे ईसा ने, चीखें-चिल्लाहटों के बीच
पहाड़ी पर अपने बग़ल में सलीब पर लटकाए गये चोर से
अमरत्व का वायदा किया था, फिर भी मुक्ति तो है ही
जेल की लाइब्रेरी से ली गयी कविता की पुस्तक पढ़ते हुए
कोई कैदी सुबकता है कहीं, और मैं जानता हूँ क्यों उसके हाथ
एहतियात बरतते हैं कि पुस्तक के जर्जर पन्ने टूट न जाएँ