कुरेदा नहीं जाता जब अलाव / देवेन्द्र रिणवा
दो या तीन लोग
जमा करते हैं
घास-फूस, रद्दी कागज़,
टूटे खोखे, गत्ते, छिलपे
घिसे टायर
और तमाम फालतू चीज़ें
जलाया जाता है अलाव
एक-एक कर जुटते हैं लोग
जमता है कोई ईंट पर
पत्थर पर कोई
आसपास हो तो
मुड्ढा या कुर्सी भी
कुछ न हो तो
पंजे के बल
थकने पर
जूते या चप्पल पर
हैसियत के मुताबिक
जगहें होती है
जिस और होता है
धुएँ का ज़ोर
अक्सर उधर
बैठता है कमज़ोर
जो बीच बीच में उठता है
लाता है बलीतन
खेती, गृहस्थी, धंधा,
निंदा, धर्म, राजनीति
एक एक कर सभी हाजिर होते हैं
बेशक चिन्ता भी
पर अलाव का ताप
खदेड़ देता है उसे
खोई छिलपे को
खड़ा करता है
तोड़ने लगता है कोई अंगारे
ऊपर की जलती हुई लकड़ी को
नीचे घुसेड़ता है कोई
लपट उठाने के लिए
फ़ूंकता है कोई
आंसू आ जाने तक
गऱज़ ये कि
कुरेदे बगैर कोई बैठा नहीं होता
अलाव के आगे
कुरेदा नहीं जाता
जब अलाव
तो जमने लगती है राख