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कुल घृणा / लीलाधर मंडलोई
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कैसा यह नीम अंधेरा
कि रक्त की गंध तारी फिजाओं में
ठिठक जाते हैं पांव एकाएक
अंगुलियों के पोरों से टपकता चिपचिपा कुछ
न मैं कोस सकता हूं तुम्हें
न छोड़ पाता तुम्हारा हाथ
इतनी ज्यादा उपस्थित होने के बावजूद
यह कैसी काली धुस्स आकृति तुम्हारी
जिसमें से झांकती कुल घृणा
इतने वयस्क तो हो गये हम कि हाथों में
बच्चों की छुअन अधिक आलोकित
तिस पर गत स्पर्श छूटता नहीं
कैसी यह काल गति
कि तुम्हारी गंध में कत्ल का अहसास