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कुसुम के बहार / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’

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गाँव के बहरिया बा घनी फुलवरिया रे
देखि ल कुसुम के बहार।
रूपवा सँवारे नित बीच के बउलिया में
झाँकि सब मुखवा निहार।
जूहिया-चमेलिया के अजबे पिरीतिया रे
देखि-देखि मनवां मोहाय।
बेलवा अकेला बनि करता पवनवां से
अब रे सनेह सिहराय।
उठि-उठि उचकि-उचकि झांकि लेत बाड़े
रुपवा सुनरवा नेवार।
सुतल सुगन्धराज जगले फड़कि के रे
बांटि देत गन्ध अनमोल।
कब तक चुप रहे कुन्दवा के मनवा रे
इहो देत गन्धवा के खोल।
अब गुलमेहदी के मधुमय रूपवा प
रीझेला सनहिया बयार।
गेंदवा के भेखवा के कोई पूछे बतिया रे
कतहीं हजरवा के भीर।
कतहूं उड़त मधु माधवी के गन्हवा रे
मनके जगावे नित पीर।
एने जटधारिया के जटवा से निकसेला
गंग-जल सम गंध-धार।
हेना हरसिंगरवा के महक सिंगरवा के,
सोनवा सुगन्धवा के साथ।
चमकत चार चान बीच फुलवरिया में
लगते तड़गवा के हाथ।
अब गुलबहार के बहरवा में बहि जात
रोकलो प मनवाँ के प्यार।
चम्पा-मालती के डाल झूमि परदेशिया के
निहुरि बोलावे रोज पास।
देखि दुपहरिया के मनवां के मुरझत
पियवा से होखेला निराश।
उहवां अमलतास पतइन के तसवा के
फेंके हाथ हवा में पसार।
गन्ध रातगन्धवा के पुरुवा के लहरा प
हँसि-हँसि खेले लुका-चोर।
रतिया कुमुदवा रे चंदवा के डोलिया प
ढुलुआ खेलत बरजोर।
चंद्रक्रान्ति चाननी प मोहवा के जाल डाले
बाजे जब तारन सितार।
खिलेला गुलाब चीन गोर रंग फूलवा रे
लामी-लामी पतवा उतान।
कनइल के फूलवा के पीयरी सरूपवा से
भरि जाता भेखवा में जान।
उपमा चुराई मुँह भागि जाला फरके रे
खिल जाला जब कचनार।
होखते बिहनियां कमलवा के दलवा से
उतरेली कविता ललाम।
बस रे गुलबवा के पलक उभरि जाला
भवँरा के मिलेला आराम।
तब से लवंगिया के लहरा से झरि-झरि
लहसे जवनियां उभार।
फूटते किरिनियां के उमगे सूरजमुखी
सीतिया से अँखिया के धोय।
तब से अगस्तवा के धप-धप फूलवा रे
जागे भर रतिया के सोय।
ओढ़उल लाल छाप छपले चदरिया के
ओढि़-ओढि़ करले बिहार।
बडुए बउलिया के कोनवा प लहसत
केबड़ा के लामी-लामी पात।
लटकि-लटकि लटगेनवा के लहरा रे
मने-मने हँसत सुहात।
बस बाल छडि़या के गोटवा किनरिया बा
इहे फुलवरिया के सार।
गांव के बहरिया बा घनी फुलवरिया रे
देखिल कुसुम के बहार।