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कूपमण्डूक की कविता / कात्यायनी
Kavita Kosh से
क्यों कोसते हो इतना ?
हम तो किसी का
कुछ नहीं बिगाड़ते ।
न ऊधो का लेते हैं
न माधो को देते हैं ।
संतोष को मानते हैं परम सुख ।
रहते हैं वैसे ही
जाहि बिधि रखता है राम ।
बिधना के विधान में
नहीं अड़ाते टाँग ।
जगत-गति हमें नहीं व्यापती
तो तुमको क्या ?
तुमको क्यों तकलीफ कि
हमारा आसमान छोटा- सा है
कुएँ के मुँह के बराबर ?
हमने क्या बिगाड़ा है
जो कोसते हो इतना
पानी पी-पीकर ?