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कृष्ण-चरित / दोसर सर्ग / भाग 1 / तन्त्रनाथ झा

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रात्रि - शेषमे कुक्कुट बाज
सुनि आश्रमक समस्त समाज
निद्रा-आलस-शय्या त्यागि
प्रातस्मरण करथि सब जागि
केओ पराती गान उठाबथि
हरिक चरित तन्मय भए गाबथि
तरू-तरू पर पक्षी कर गान
कए अवगत रातुक अवसान
त्रमहिं तिरोहित होअए अन्हार
लागए बढ़ए प्राणि - संचार
विद्यासँ अज्ञान समान
सत्संगहि सुविचार प्रणाम
नभहि तरेगण होअए विलीन
जनु विवेक व्यसने भए क्षीण
जते दिवान्ध पक्षि-समुदाय
तरू-कोटरमे पैसए जाए
होइतहिं कार्य-दक्ष सरकार
यथा डकैत-चोर-वटमार
चिडै़ - चुनमुनी चह-चह करए
खोतासँ बहार संजरए
बैसए सब चढ़ि-चढि तरू-डारि
देखत चारू कात निहारि
रातुक भूखल जे रात्र्यन्ध
उदर-पूत्तिकेर करए प्रबन्ध
पक्षि-मिथुन छल सछि भए संग
निशि भरि करइत प्रेम-प्रसंग
तकरा कएल प्रभात फराक
सस्पृह नयन परस्पर ताक
सहस्त्रांशु जा पहुँचथि धाबि
तिमिर पड़ाएल आहट पाबि
कमलिनि वासकशय्या भेलि
प्रस्तुत दिनकर-स्वागत लेल
मधुप-आभरण कर झंकार
ओस-प्रसाधन विविध प्रकार
जलहि रागरजिंत प्रतिविम्ब
पहिरन काढ़ल चित्र-कदम्ब
कर पसारि चढ़ि उदयगिरि कए तिमिरक अपहार
रवि सिखबथि जनु लोककेँ करए कपन व्यापार।
उठि-उठि आश्रमवासिगण लेथि हरिक शुभ नाम
कुलपतिकाँ सब करथि गए गहि पदपद्म प्रणाम।
दक्षिण कर दक्षिण चरण वामहि गहि पद दाम
माँझहि मस्तक राखिकेँ अपन उचारथि नाम।
मुनिवर दए आशिष समुद सबकेँ ठोकि कपार
समाचार दैहिक तखन पूछथि बारंबार।
गुरूआइनि आबथि तखन वटुगण करथि प्रणाम
हुनक चरण पर माथ धए अपन अपन लए नाम।
सबकाँ आशीर्वाद दए माथ - शरीर हँसोथि
पूछि पूछि सरनेह पुनि बुझथि जेना जे होथि।
ब्रह्मचारिगण दुहु कर जोड़ि
बैसथि दुह बेकतीकाँ घेरि
यदि ककरहु हो दैहिक क्लेश
उपचारक करथिन्ह उपदेश
पाठ-विषय-अड़चन पुनि बूझि
करथि व्यवस्था दए दए सूझि
सभकाँ काजक दए अनुशासन
तखन अपन छाड़थि जो आसन
केओ केओ भिक्षा लए बहराथु
निकटक नगर अवन्ती जाथु
सत्कुलसँ भिक्षा लए आबथु
गुरूआइनिकेँ से सुंझाबथु
केओ जन जाए चराबथु गाए
केओ पुजा राखथु ओरिआए
केओ कुश-समिधिक संग्रह करथु
लए तमघैल अछिजल भरथु
केओ जारन केओ गोइठा आनथु
केओ तत बैसि अतिथि सम्मानथु
कन्द - मूल केओ ताकि जुटाबथु
उत्तम फल बिछि बिछि केओ लाबथु
पाकल आनथु तोड़ि झखाए
कए भल यत्न दूरि नहि जाए
काँच डम्हाएल आनथु तोड़ि
पकबा लए राखथु से गोड़ि
काज सम्हारि आश्रमहि आबि
गुरूआइनि केर अनुमति पाबि
नित्य-कर्म कए सविधि समाप्त
पुनि हुनकहि लग भए सम्प्राप्त
पनपिआइ बखरा लए आनि
खाए खाए पीबथि सब पानि
जनिक काज रहि जाइन्हि अपूर्ण
तकरा त्वरित करथि से पूर्ण
अपन - अपन सब काज सम्हारि
बैसथि थिर भए पलथा मारि
आवृति देथि पाठ मन पारि
घोखथि नबका पाठ विचारि
शक्ङास्थल राखथि ठेकनाए
अनकहुसँ चिन्तथि से जाए
पढ़ितहु बालकगण सतत रहि सतर्क अत्यन्त
गुरू वम्पति - क्षादेश केर पालन करथि तुरन्त
ब्रह्ममुहूर्तहिसँ सन्दीपनि करइत विविध गृहस्थक कर्म
पाँचो महायज्ञ-सम्पादन करइत अवहित ब्राह्मण-धर्म।
वैश्वदेव सम्पन्न करथि जा ताबत कुपकाल भए जाए
भोजन कए, कए किछु विश्राम
ब्रह्मचारिगण केर लए नाम
एक - एककेँ लेथि बजाए
गुरू सस्नेह निकट बैसाए
पहिलुक पाठ सुनथि दए चित्त
तखन नवीन पढ़ाबथि नित्य
पहिलुक पाठ न जा सुनि लेथि
ता धरि अगिलुक पाठ न देथि
पहिलुक हो नहि प्रस्तुत जनिका
घोषए कहथि सएह पुनि तनिका