कृष्ण-द्रौपदी मैत्री / शिवांगी गोयल
मैं द्रौपदी बन जब चीर धरूँ तुम कान्हा बनकर आ जाना;
दुश्शासन कोई वस्त्र हरे जब,साथ अनोखा दिखलाना
जब केश पकड़ के दैत्य कोई दरबार के आगे खींच पड़े,
नारी को नारी ना समझे जब वस्तु समझकर भींच पड़े
आँखें होते हुए भी जब धृतराष्ट्र बने बैठें सबलोग;
जब भार्या पर ही दाँव लगे या द्यूत-भेंट चढ़े राजयोग
जब जीवनसंगी दास बने और मूढ़ सभा निस्तब्ध रहे,
जब धर्म-शास्त्र झुठला जाएँ, बस मान-ह्रास प्रारब्ध रहे
जब मर्यादा का भान ना हो,सब तर्क-कुतर्क भी व्यर्थ रहें;
कुलवधू की लाज बचाने में जब धर्मगुरू असमर्थ रहें
हर दिशा से जाकर लौट पड़े जब मेरी करुण पुकार सखे
तब मन-वाणी तुम सुन लेना, रख लेना मेरी लाज सखे
बाँधा था तुम्हारी चोट पर जो उस पट का मान बचा जाना,
सब थक जायें परिभाषित कर तुम सखा मेरे तब कहलाना