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कृष्ण ग़र आपकी चली होती / आर्य हरीश कोशलपुरी
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कृष्ण ग़र आपकी चली होती
हर ग़ली प्रेम की ग़ली होती
कोई आशिक़ ज़ुदा नही होता
कोई राधा नही छली होती
शक़ को कोई जगह नही मिलती
कोई सीता नही जली होती
भूंख के पास रोटियाँ रहतीं
ज़ात की फ़स्ल भी दली होती
प्रेम की डोर में बंधे होते
खुरदुरी फ़र्श मखमली होती
कोई पंडित न मौलवी होता
सम्प्रदायिक न खलबली होती